पूर्वी सिंहभूम जिले के आदिवासी बहुल गांवों में दशहरा से पहले पांच दिनों तक पुरुष महिला बन जाते हैं। आदिवासी समुदाय के भीतर ऐसा होता है। दरअसल, इस समुदाय में शारदीय नवरात्र के दौरान दशहरा से ठीक पहले पांच दिनों तक आदिवासी पुरुष दसाई नृत्य करते हैं।

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यह कला उनकी समृद्ध संस्कृति का हिस्सा रहा है। दसाई नृत्य में भाग लेने वाले पुरुष पहले महिलाओं का रूप धारण करते हैं, फिर पारंपरिक वाद्ययंत्रों पर नृत्य करते हैं। महिला रूप में ही वे नृत्य करते हुए घर घर जाते हैं। नृत्य के दौरान सूखे कद्दू से बने एक विशेष प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं। इसे भुआंग कहा जाता है। आदिवासी लोग इससे मधुर ध्वनि निकलते हैं। आप भी इसे सुनकर मोहित हो उठेंगे। इसके अलावा इस नृत्य में थाली और घंटी का इस्तेमाल होता है। थाली, घंटी और भुआंग जब समवेत स्वर में बजते हैं तो इसकी आवाज और दिलकश हो उठती है। ऊपर से एकसाथ माथे पर मोर का पंख सजा कर झूमते आदिवासी नृत्य को ऊंचाई प्रदान करते हैं। ईचागढ़ के आमडा टोला निवासी अनिल मुर्मू बताते हैं कि इस कला का जन्म कैसे हुआ, युवाओं का इसकी जानकारी नहीं है। दरअसल, इसका जन्म क्रांतिकारियों को ढूंढने के लिए हुआ था। जब बाहरी आक्रमणकारियों ने आदिवासी समुदाय के क्रांतिकारियों को बंदी बना लिया। सभी आदिवासी पुरुषों को इलाके से खदेड़ दिया। उसी दौरान क्रांतिकारियों को खोजने के लिए आदिवासी पुरुष महिला रूप धारण कर नृत्य करते हुए अलग-अलग टोलियों में निकलते थे। इस नृत्य में शामिल पुरुष साड़ी पहनकर माथे पर मोर का पंख लगाकर खुद को औरत की तरह सजाते हैं। दसाई नृत्य हाय रे हाय.. से शुरू होता है, जो दुख का प्रतीक है। यानी क्रांतिकारियों को बंदी बनाने का दुख इसमें झलकता है।

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